दुर्खीम ने कभी प्रत्यक्ष रूप से स्वः के विकास के लिए समाजीकरण की चर्चा नहीं की लेकिन अपनी पुस्तक सोशियोलॉजी एंड फिलोसोफी (Sociology and Philosophy) में व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए समाज की भूमिका को रेखांकित किया| मार्क्स की तरह दुर्खीम भी व्यक्ति को कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं मानते बल्कि समूह की सत्ता को ही केंद्रीय महत्त्व देते हैं| दुर्खीम ने सामूहिक प्रतिनिधान (Collective representation) के आधार पर समाजीकरण के सिद्धांत को स्पष्ट किया|
उनके अनुसार सामूहिक प्रतिनिधान का तात्पर्य वे सभी विचार, मूल्य, स्वभाव, व्यवहार का तरीका है जो एक समूह के सदस्यों का साझा होता है|
व्यक्ति जब समूह के व्यवहार को ग्रहण कर लेता है तो समाजीकृत हो जाता है| सामूहिकता अर्थात् सामूहिक प्रतिनिधान व्यक्ति की सोंच एवं चेतना को पूर्णतः निर्धारित करता है| सामूहिक प्रतिनिधान व्यक्ति पर सामाजिक तथ्य के रूप में कार्य करता है| सामूहिक प्रतिनिधान द्वारा व्यक्त होने वाली सामूहिक चेतना (Collective Conciousness) के सामने व्यक्तिगत चेतना गौण होती है| इसलिए व्यक्ति नैतिक दबाव द्वारा समूह के अनुसार व्यवहार करने को बाध्य होता है|
दुर्खीम व्यक्ति एवं समाज के संबंध की व्याख्या में समाज द्वारा व्यक्ति पर नियंत्रण की बात करते हैं| वे समाजीकरण को एक-तरफा प्रक्रिया के रूप में विश्लेषित करते हैं| वे अपना विचार इस बात पर केंद्रित करते हैं कि कैसे समाज व्यक्ति को सामाजिक ढांचे में स्थापित होने के लिए ढ़ालता है, जिसका आधार सामूहिक प्रतिनिधान है| सामूहिक प्रतिनिधान व्यक्ति की विरासत न होकर समूह की विरासत होती है जिसके कारण व्यक्ति स्वः या व्यक्तित्व को प्राप्त करता है|
इस तरह समाजीकरण की प्रक्रिया में दुर्खीम ने व्यक्ति की भूमिका को नजरन्दाज किया एवं समाज को ही महत्त्व दिया| दुर्खीम की इस अतिवादी विश्लेषण के कारण उनके विचार को समाजशास्त्रवाद (Sociologism) या समूहवाद (Anglicism) कहा जाता है|