सामाजिक नियंत्रण के साधन (Means of Social Control)

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सामाजिक नियंत्रण के साधनो में जनमत, प्रचार, पुरस्कार एवं दण्ड, भाषा, परिहास, कला आदि सम्मिलित हैं|

जनमत (Public Opinion)

जनमत का तात्पर्य विशाल जनसमूह द्वारा विवेकपूर्ण तरीके से व्यक्त किए गए विचार या निर्णय से हैं| जनसमूह सामान्य हितों के प्रति जागरुक होता है| व्यक्ति जनमत की अवहेलना नहीं कर पाता, इसलिए वह अपने व्यवहार एवं आदर्शों को जनमत के अनुसार ढ़ाल लेता है|

जॉन डेवी (John Dewey) के अनुसार जनमत एक निर्णय है जो जनता का निर्माण करने वाले व्यक्तियों द्वारा बनाया तथा स्वीकार किया जाता है तथा जिनका संबंध सार्वजनिक विषयों से होता है|

जेम्स यंग (James Young) के अनुसार जनमत एक अात्म-चेतन समुदाय का वह सामाजिक निर्णय हैं जो किसी सामान्य महत्त्व के प्रश्न पर विचारपूर्वक दिया जाता है|

जनमत निर्माण की प्रक्रिया – जनमत निर्माण के सामान्यतः तीन स्तर होते हैं –

(1) किसी समस्या का प्रादुर्भाव – प्रथम स्तर पर यदि कोई समस्या उत्पन्न होती है तो इसे सार्वजनिक रूप से प्रकाश में लाया जाता है| सभी लोग इसके विभिन्न पक्षों पर आत्म-चिंतन करते हैं|

(2) विषय के पक्ष एवं विपक्ष पर विचार-विमर्श – समस्या से अवगत एवं आत्म-चिंतन करने के बाद लोग उस पर पक्ष एवं विपक्ष में विचार व्यक्त करते हैं| विचार आमने-सामने के साथ-साथ समाचार पत्र, टेलीविजन, फोन, रेडियो आदि के माध्यम से व्यक्त किये जाते हैं|

(3) एक सामान्य मत का निर्माण – समस्या के सभी बिंदुओं पर विचार-विमर्श के बाद एक सामान्य तार्किक निष्कर्ष पर सहमति व्यक्त की जाती है| यही सामान्य निष्कर्ष ही जनमत है|

सामाजिक नियंत्रण में जनमत की भूमिका (Role of Public Opinion in Social Control)

(1) जनमत एक विशाल जनसमूह का विचार होता है| अतः इसके प्रति विरोध, असहमति आदि की सम्भावना नहीं रहती| ऐसे में वर्तमान लोकतांत्रिक समाज में जनमत अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है|

(2) यह आवश्यक नहीं कि जनमत औपचारिक रूप से सरकार द्वारा कराया जाय| यह अनौपचारिक भी हो सकता है, जैसे – एक गाँव के लोगों या ग्राम पंचायत द्वारा लिया गया निर्णय| इसे न मानने पर गाँव के लोगों द्वारा निन्दा एवं उपहास का सामना करना पड़ता है| अतः इस से बचने के लिए गाँव के सदस्य स्व-नियंत्रित हो जाते हैं|

(3) सरकार के लिए जनमत को स्वीकार करना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि इसकी अवहेलना या उपेक्षा करने पर सरकार को जनता द्वारा प्रदर्शन, हड़ताल, विरोध आदि का सामना करना पड़ता है| इस तरह जनमत द्वारा समाज के सदस्य ही नहीं बल्कि सरकार भी नियंत्रित होते हुए दिखाई देती है|

(4) जनमत के रूप में व्याप्त लोकाचार, प्रथाएँ, परम्पराएं, नैतिकता, धार्मिक विश्वास आदि सामाजिक नियंत्रण में प्राथमिक भूमिका अदा करती है|

बोटोमोर के अनुसार जनमत चाहे धर्म से प्रभावित हो अथवा नैतिकता से या प्रथा से, व्यक्तियों के व्यवहार का वास्तविक नियमन जनमत के द्वारा ही होता है|

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प्रचार (Propaganda)

प्रचार एक योजनाबद्ध एवं संगठित प्रयास है, जिसके अंतर्गत व्यवस्थित ढंग से लोगों तक सूचना पहुँचाकर प्रभावित किया जाता है| इस प्रचार द्वारा व्यक्ति एवं समूह के व्यवहार पर नियंत्रण रखा जाता है| नेताओं, महापुरुषों, प्रेरणादायक वक्ता के विचारों का प्रचार कर समाज में एकरूपता उत्पन्न की जाती है एवं समाज में नियंत्रण  बना रहता है|

अकोलकर (Akolkar) के अनुसार प्रचार एक व्यक्ति एक समूह द्वारा किसी भी क्षेत्र में जनमत को प्रभावित करने वाला संगठित तथा व्यवस्थित प्रयत्न है|
प्रचार हमेशा समाज के हित के लिए नहीं किया जाता, कभी-कभी व्यक्ति एवं समूह द्वारा अपने निजी स्वार्थ के लिए भी किया जाता है, जैसे चुनाव में अपने पार्टी के कार्यों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना एवं विपक्षी पार्टियों की खामियों का प्रचार करना|

लम्ले (Lumley) ने कहा है कि प्रचार अपने आप जन्म नहीं लेता बल्कि यह एक बाध्यता मूलक उपज है|

प्रचार के माध्यम से सामाजिक नियंत्रण

प्रत्येक समाज में प्रचार किसी न किसी रूप में अस्तित्त्व में रहा है| प्राचीन काल में शिलालेख, मठ, किताबें आदि के माध्यम से प्रचार द्वारा सामाजिक नियंत्रण स्थापित किया जाता था| वर्तमान समय में नई टेक्नोलॉजी के माध्यम से प्रचार किया जाता है जैसे – टी.वी., रेडियो, समाचार पत्र, मोबाइल तथा अन्य सामाजिक मीडिया जैसे – facebook, Whatsapp, Twitter, Instagram द्वारा अपनी बातों को लोगो तक पहुंचाया जाता है एवं उसी के अनुरुप लोग व्यवहार करते दिखाई देते हैं| जिससे समाज में नियंत्रण बना रहता है|

पुरस्कार (Reward)

पुरस्कार का तात्पर्य किसी अच्छे, साहसपूर्ण, समाज की उन्नति के लिए किये गये कार्य के बदले दिये गये उपहार से है| सामान्यतः समाज में लोगों को कार्य एवं व्यवहार करने के नियम विद्यमान है| लेकिन कुछ ऐसे भी कार्य होते हैं जिन्हें करने के लिए लोगों को बाध्य नहीं किया जा सकता है| ऐसे में उसके लिए विशेष प्रतिफल एवं प्रोत्साहन दिया जाता है| इसी प्रतिफल को पुरस्कार कहते हैं| इस तरह पुरस्कार एक प्रोत्साहन है जिसके द्वारा अधिक से अधिक लोगों को विशेष प्रकार के कार्य करने की प्रेरणा दी जाती है|

पुरस्कार दो प्रकार का होता है

(1) भौतिक पुरस्कार – यदि किसी व्यक्ति या समूह को आर्थिक सहायता, मेडल, प्रशस्ति पत्र आदि द्वारा प्रोत्साहन दिया जाता है तो इसे भौतिक पुरस्कार कहते हैं|

(2) अभौतिक पुरस्कार – जब किसी कार्य के लिए पदोन्नति या सामाजिक प्रशंसा के द्वारा प्रेरणा मिलती है तो इसे अभौतिक पुरस्कार कहते हैं|

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पुरस्कार की सामाजिक नियंत्रण में भूमिका (Role of Reward in Social Control)

इसे निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –

(1) व्यक्ति एवं समूह को प्रेरणा देता है|

(2) आत्म नियंत्रण को प्रोत्साहन देता है|

(3) सामाजिक नियमों, संस्कृतियों आदि में विश्वास की वृद्धि करता है|

(4) व्यक्ति को संयमित बनाता है|

(5) कर्तव्यों के निर्वहन के प्रति लोगों में उमंग पैदा करता है|

(6) समाज में एक सकारात्मक सोच विकसित करता है|

फिचर (Fichter) के अनुसार सामाजिक नियंत्रण के सभी साधनो में पुरस्कार सबसे प्रमुख रचनात्मक साधन है| यह आलोचना या बहिष्कार द्वारा नहीं बल्कि प्रशंसा एवं प्रेरणा द्वारा लोगों के व्यवहार पर नियंत्रण रखता है|

दण्ड (Punishment)

सामान्यतः समाज में सभी व्यक्ति सामाजिक नियमों एवं मूल्यों का पालन करते हैं जिससे समाज का संगठन एवं अनुरक्षण बना रहता है लेकिन समाज में कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो पुरस्कार, प्रोत्साहन या आग्रह के बावजूद समाज विरोधी कार्य करते हैं| जिससे समाज विघटन का शिकार होने लगता है| ऐसे लोगों को शारीरिक या आर्थिक दण्ड देकर सामाजिक नियंत्रण स्थापित किया जाता है| दण्ड को सामाजिक नियंत्रण का अंतिम साधन माना जाता है|

रूसेक (Roucek) अपनी पुस्तक सोशल कंट्रोल में लिखते हैं कि दण्ड विचारपूर्वक दिया गया कष्ट है जिसका उद्देश्य व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाना है|

डॉ. सेथना के अनुसार दण्ड कुछ उस तरह का सामाजिक निंदा है जिसमें सामाजिक कष्ट का समावेश होना आवश्यक है|

सदरलैंड अपनी पुस्तक प्रिंसिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी (Principles of Criminology) में दण्ड को दो विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट किया –

(1) दण्ड एक क्षेत्र विशेष से संबंधित है क्योंकि एक समूह केवल अपने समूह के ही किसी सदस्य को दण्ड दे सकता है|

(2) दण्ड मनमाना नहीं होता, बल्कि दण्ड देने की विधि पूर्व निर्धारित अथवा समूह द्वारा स्वीकृत होती है|

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दण्ड के सिद्धांत

समाज के अस्तित्त्व के लिए समाजीकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ सामाजिक नियंत्रण भी अनिवार्य होता है| अतः सामाजिक जीवन को गतिमान करने के लिए जो नकारात्मक प्रोत्साहन दिया जाता है उसे दण्ड कहते हैं| दण्ड का उद्देश्य अपराधी और समाज से संबंधित होता है|

 अपराधी की मनः स्थिति, परिस्थितियाँ एवं समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखकर ही दण्ड का स्वरूप निर्धारित किया जाता है| प्राचीन काल से ही दिए जा रहे दण्ड के तीन प्रमुख सिद्धांत है –

(1) प्रतिशोधात्मक सिद्धांत (Retributive theory of Punishment) – यह सिद्धांत ‘जैसे को तैसा’ की मूल भावना पर आधारित है| प्रत्येक अपराधी योजनाबद्ध रूप में अपराध करता है| इसलिए अपराधी को समान मात्रा तथा प्रभाव में दण्ड मिलना चाहिए| दण्ड का यह सिद्धांत परम्परागत समाजों में विकसित होता है|

(2) निरोधात्मक या निवारक सिद्धांत  (Preventive theory of Punishment) – इस सिद्धांत के अनुसार अपराधियों को दण्ड इसलिए दिया जाता है ता कि अन्य व्यक्तियों को उस तरह का अपराध करने से रोका जा सके| इस दण्ड के प्रावधान को एक न्यायाधीश की उक्ति से समझा जा सकता है| न्यायाधीश ने दण्ड का एलान करते हुए कहा कि ‘तुम्हें भेड़ें चुराने के लिए दण्ड नहीं दिया जा रहा है बल्कि इसलिए दिया जा रहा है कि भविष्य में भेड़ें न चुराई जाय|’ इस दण्ड के पीछे मूल भावना यह है कि ऐसा दण्ड दिया जाय ता कि शेष समाज विचलन से बचा रहे|

(3) सुधारात्मक सिद्धांत (Reformative theory of Punishment) – यह सिद्धांत आधुनिक काल में मानवतावादी दर्शन एवं लोकतांत्रिक समाज में दिखाई देता है| यह सिद्धांत मानता है कि व्यक्ति में सुधार के लिए दण्ड का प्रावधान किया जाना चाहिए| दण्ड उतना ही दिया जाना चाहिए ता कि व्यक्ति में सुधार हो सके| यह सिद्धांत मनुष्य की विवेकशीलता पर अधिक विश्वास रखने के कारण मृत्युदण्ड का घोर विरोधी है, क्योंकि मृत्युदण्ड के बाद मानव में सुधार की सम्भावना का अंत हो जाता है|

सामाजिक नियंत्रण में दण्ड की भूमिका (Role of Punishment in Social Control)

(1) किसी एक को दण्ड देने से समाज के अन्य लोगों को सीख एवं भय उत्पन्न होता है तथा वे समाज विरोधी कार्य करने से डरते हैं|

(2) दण्ड के आधार पर कानूनों को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया जाता है जैसे – नारी भ्रूण हत्या रोकने के लिए पी.एन.डी.टी. एक्ट (P.N.D.T.) 1994 द्वारा गर्भ में लिंग परीक्षण को अपराध घोषित किया गया है|

(3) दण्ड द्वारा अपराधी का समाज से पृथककरण किया जाता है ता कि उसकी गतिविधियों से समाज प्रभावित न हो सके, जैसे – अपराधी को जेल में रखकर|

(4) दण्ड के माध्यम से अपराधी को सुधरने का मौका दिया जाता है| जिससे वह समाज में पुनः समायोजित हो सके, जैसे – जेल में बंद अपराधी को नैतिक शिक्षा दिया जाना तथा पैरोल के माध्यम से कुछ समय के लिए परिवार के साथ रहने की व्यवस्था, अपराधी का व्यवहार अच्छा होने पर दण्ड की प्रकृति को कम करना| इस तरह दण्ड एक साधन है साध्य नहीं|

(5) दण्ड द्वारा सामाजिक एकीकरण में वृद्धि होती है| सामाजिक एकता में बाधा पहुंचाने वाले को जब दण्डित किया जाता है तो अन्य लोग इससे सीख लेकर समाज के एकीकरण में योगदान देते हैं|

डॉ. सेथना के अनुसार यदि दण्ड के द्वारा व्यक्ति का चरित्र निर्माण न किया जा सके तथा दण्ड से अपराधी को एक रचनात्मक शिक्षा न प्राप्त हो तो दण्ड को किसी भी तरह उपयोगी नहीं कहा जा सकता|

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भाषा तथा सामाजिक नियंत्रण (Language and Social Control)

भाषा अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपने विचारों को उसी रूप में दूसरों तक पहुँचाता है| भाषा के द्वारा ही संस्कृति, प्रथाओं, परम्पराओं आदि को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित किया जाता है| वस्तुतः सामाजिक नियंत्रण के जितने भी साधन है जैसे – प्रथा, परम्परा, कानून, धर्म, शिक्षा आदि किसी न किसी रूप में भाषा की अभिव्यक्तियाँ हैं|

आल्पोर्ट (Allport) के अनुसार भाषा संवहन की वह व्यवस्था है जो प्रथागत प्रतीकों के द्वारा निर्मित होती है|

हर्कोविट्स (Herskovits) के अनुसार भाषा मुँह से उच्चारित संकेतों की वह व्यवस्था है जिसके माध्यम से सीखने की प्रक्रिया को सरल बनाया जाता है तथा इस प्रकार जीवन की किसी विधि विशेष को निरंतरता और परिवर्तनशीलता दोनों ही प्राप्त होती है|

क्रोबर (Kroeber) के अनुसार संस्कृति का आरम्भ तब हुआ जब भाषा का अस्तित्त्व था और फिर इसके पश्चात संस्कृति तथा भाषा दोनों में से किसी एक की भी समृद्धि का अर्थ दूसरे का विकास होना हुआ|

सामाजिक नियंत्रण में भाषा की भूमिका (Role of Language in Social Control)

(1) भाषा के माध्यम से एक बच्चे का समाजीकरण होता है| जिसमें वह अपने समाज के मूल्यों एवं प्रतिमानों को सीखता है जिससे वह आत्म नियंत्रित रहता है|

(2) जनमत, प्रचार आदि में भाषा के माध्यम से ही विचारों का आदान-प्रदान होता है जो सामाजिक नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है|

(3) भाषा के माध्यम से ही सांस्कृतिक स्थायित्त्व बना रहता है|

(4) भाषा लोगों में हम की भावना उत्पन्न कर लोगों को एक सामान्य मूल्यों से बाँधे रहती है जैसे – राष्ट्रीय गीत, देश भक्ति गीत, राष्ट्रगान आदि|

(5) किसी मुद्दे पर लोगों की राय जानने में भाषा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है|

(6) भाषा के माध्यम से ही सही कार्य के लिए प्रशंसा करके एवं अनुचित कार्य के लिए व्यंग, उपहास आदि के माध्यम से सामाजिक नियंत्रण स्थापित किया जाता है|

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परिहास तथा कला (Humour and Art)

 सामान्य रूप से परिहास को हँसी उड़ाने के अर्थ में समझा जाता है लेकिन समाजशास्त्रीय अर्थों में किसी समाज विरोधी कार्य के प्रतिकार में हँसी उसकी आलोचना से होती है, जो न सिर्फ तार्किक होती है बल्कि कुछ परिहास आलोचनात्मक न होकर भी व्यक्ति के लिए अर्थपूर्ण होती है|

परिहास के साधनो में व्यंग बोलना या लिखना, कार्टून बनाना, खिल्ली उड़ाना, नुक्कड़ नाटक आदि|

बोगार्डस के अनुसार सामाजिक नियंत्रण में परिहास को उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है जितना धर्म और लोकाचारों को|

सामाजिक नियंत्रण में परिहास की भूमिका (Role of Humour in Social Control)

(1) परिहास द्वारा समाज के सदस्यों में आत्म नियंत्रण की भावना उत्पन्न होती है|

(2) परिहास द्वारा समाज के मूल्यों एवं प्रतिमानों का अनुरक्षण होता है|

(3) जिन सामाजिक क्षेत्रों में कानून की कमी है वहाँ परिहास कानून के रूप में कार्य करता है|
क्योंकि लोग परिहास के भय से समाज विरोधी कार्य नहीं करते|

(4) अनुपयोगी प्रचार तथा मूर्खतापूर्ण व्यवहार पर परिहास द्वारा नियंत्रण स्थापित किया जाता है|

कला (Art)

कला का तात्पर्य उन सभी व्यवहारों, विचारों, कार्य करने के तरीकों एवं श्रृजनात्मक कृति से है जो मानवीय जीवन में यथार्थ, सौन्दर्य एवं उमंग का बोध कराये|

कला सामूहिक विशेषताओं से युक्त होती है तथा सामूहिक जीवन को प्रभावित करती है जैसे – कोई कलाकार अपने प्रदर्शनी, पेंटिंग, सृजनात्मक कार्यों के माध्यम से सामाजिक यथार्थ को सभी लोगों तक पहुँचाता है| सामाजिक समस्याओं का चित्रण कर जन सामान्य का सामाजिक नियंत्रण ही नहीं करता बल्कि लोगों के व्यवहार को परिवर्तित करने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देता है|

हॉबेल के अनुसार कला से हमारा तात्पर्य उन रेखाओं, स्वरूप, रंग, ताल, चित्रकारी, मूर्ति निर्माण, नृत्य, ध्वनि, कविता और साहित्य से है जिनके द्वारा मानवीय प्रेरणाओं की अभिव्यक्ति की जाती है तथा जिसमें चिन्तन की अपेक्षा उद्वेगपूर्ण अनुभूति का अधिक महत्त्व होता है|

टॉलस्टॉय ने लिखा है कि कला इस अर्थ में मानवीय क्रिया है कि इसके द्वारा मनुष्य चेतन रूप में बुद्धि, विवेक की सहायता से दूसरों को वह अनुभूतियाँ देता है जिनका उसने स्वयं अनुभव किया है|

सामाजिक नियंत्रण में कला की भूमिका (Role of Art in Social Control)

(1) चित्रकारी एवं कार्टून के द्वारा नियंत्रण|

(2) ध्वनि, नृत्य, संगीत के माध्यम से नियंत्रण|

(3) कविता, साहित्य के द्वारा नियंत्रण|

(4) नाटक प्रेरणादायक फिल्मों के द्वारा नियंत्रण|

(5) सतम्भ, शिलालेखों द्वारा नियन्त्रण|

लिस्टर एफ. वार्ड (Lester F. Ward) के अनुसार कला से समाज सुधार को ही प्रोत्साहन नहीं मिलता बल्कि सामाजिक नियंत्रण के लिए भी दृढ़ आधार तैयार हो जाता है|

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