हिंदू विवाह (Hindu Marriage)

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हिंदू विवाह को एक धार्मिक संस्कार के रूप में स्वीकार किया जाता है| शास्त्रों के अनुसार विवाह के पश्चात मनुष्य को नियमों के पालन एवं कर्तव्यों के निर्वहन की प्रेरणा मिलती है| साथ ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर व्यक्ति धर्म, अर्थ एवं काम जैसे पुरुषार्थ का पालन करता है, तथा संतानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से मुक्त होता है|

पी.एच.प्रभु अपनी पुस्तक हिंदू सोशल ऑर्गनाइजेशन (Hindu Social Organisation) में लिखते हैं कि हिंदू विवाह एक धार्मिक कृत्य है जिसके द्वारा व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है|

के.एम.कपाडिया (K.M.Kapadia) के अनुसार विवाह प्राथमिक रूप से कर्तव्यों की पूर्ति के लिए होता है, इसलिए विवाह का मौलिक उद्देश्य धर्म है|
राजबली पाण्डेय (Rajbali Pandey) अपनी पुस्तक 'हिंदू संस्कार' में हिंदू विवाह को धार्मिक एवं मानवीय संस्था के रूप में व्याख्यायित करते हैं|

हिंदू विवाह के उद्देश्य (Objectives of Hindu Marriage)

मुख्य रूप से तीन उद्देश्य हैं जिसमें धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया गया है|

(1) धर्म – धर्म का तात्पर्य कर्तव्य पालन से है| विवाह का सर्व प्रमुख उद्देश्य धार्मिक कर्तव्यों का पालन ही है| पुरुष अपनी पत्नी के साथ पाँचो यज्ञ संपन्न करता है| यज्ञ के लिए विवाहित जोड़े का होना अनिवार्य है, अतः विवाह के द्वारा ही यज्ञ संपन्न किया जा सकता है|

याज्ञवल्क्य के अनुसार पत्नी के मरने पर तुरंत दूसरा विवाह करना चाहिए अन्यथा धार्मिक कार्य संपन्न नहीं किए जा सकते| यही कारण है कि हिंदुओं में पत्नी को धर्मपत्नी कहा जाता है|

(2) प्रजा – प्रजा का तात्पर्य संतानोत्पत्ति से है जिससे व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है| इसके अंतर्गत विशेषकर पुत्र प्राप्ति की कामना की जाती है| ऐसी मान्यता है कि बिना पुत्र के मोक्ष नहीं मिल पाता, क्योंकि पुत्र ही पिता के लिए तर्पण और पिंडदान करके मोक्ष दिलाता है|

(3) रति – रति का तात्पर्य आनंद या शारीरिक सुख से हैं| धर्म शास्त्रों में यौन इच्छा की पूर्ति को आवश्यक माना गया है,अन्यथा यह मोक्ष प्राप्ति में बाधा उत्पन्न कर सकता है| विवाह के उद्देश्यों में इसे अंतिम स्थान दिया गया है और इसका उद्देश्य उत्तम संतानों की प्राप्ति है|

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हिंदू विवाह के परम्परागत स्वरूप या प्रकार (Traditional forms of Hindu Marriage)

मनुस्मृति में हिंदुओं के लिए आठ प्रकार के विवाह का उल्लेख है –

(1) ब्रह्मा विवाह – इसके अंतर्गत लड़की का पिता किसी विद्वान एवं चरित्रवान व्यक्ति को अपनी लड़की के वर के रूप में चुनाव करता है| मनु के अनुसार वेदों के ज्ञाता शीलवान वर को स्वयं बुलाकर वस्त्र आभूषण आदि से सुसज्जित कर पूजा एवं धार्मिक विधि से कन्यादान करना ही ब्रह्म विवाह है|

(2) दैव विवाह – हिंदुओं में विवाह को एक यज्ञ के रूप में माना जाता है| लड़की का पिता यज्ञ का आयोजन करता है| जिसके पीछे उसका निहित उद्देश्य पुत्री का विवाह करना होता है एवं यज्ञ के लिए सर्वश्रेष्ठ पुरोहित चुनता है| यज्ञ समापन के बाद पुरोहित को कन्यादान के माध्यम से पुत्री को सौंप देता है|

(3) आर्ष विवाह – आर्ष का तात्पर्य ऋषि से होता है| यदि कोई ऋषि गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहता है तो उसकी इच्छा जाहिर करने के लिए लड़की के पिता को एक जोड़ी गाय या बैल प्रतीकात्मक रूप मे भेंट करता है, इसके बाद जो विवाह संपन्न होता है उसे आर्ष विवाह कहते हैं| याज्ञवल्क्य के अनुसार दो गाय लेकर जब कन्यादान किया जाता है तो उसे आर्ष विवाह कहते हैं|

(4) असुर विवाह – क्रय की गयी कन्या के साथ विवाह करना असुर विवाह कहलाता है| मनु के अनुसार कन्या के परिवार वालों एवं अन्य को अपनी शक्ति के अनुसार धन देकर कन्या ग्रहण करना असुर विवाह कहा जाता है|

(5) प्रजापत्य विवाह -इस विवाह में लड़की का पिता वैवाहिक जोड़े को आजीवन धर्म का आचरण करने का आदेश देता है| यह विवाह ब्रह्म विवाह के समान प्रतीत होता है किन्तु ब्रह्मा विवाह में कन्या को वस्त्र एवं आभूषण देना अनिवार्य है, जबकि प्रजापत्य विवाह में यह आवश्यक नहीं है|

(6) गान्धर्व विवाह – वर्तमान में इसे प्रेम विवाह (Love Marriage) के नाम से जाना जाता है| याज्ञवल्क्य के अनुसार पारस्परिक स्नेह द्वारा होने वाले विवाह को गान्धर्व विवाह कहते हैं|

(7) राक्षस विवाह – कन्या का अपहरण कर उससे विवाह करना राक्षस विवाह कहलाता है| याज्ञवल्क्य लिखते हैं कि युद्ध में कन्या का अपहरण करके उसके साथ विवाह करना ही राक्षस विवाह है|

(8) पैशाच विवाह – मनु लिखते हैं कि सोयी हुई, उन्मत्त, घबराई हुई, मदिरापान की हुई अथवा राह में जाती हुई लड़की के साथ बल पूर्वक कुकृत्य करने के बाद उससे विवाह करना पैशाच विवाह है| इस विवाह को सबसे निकृष्ट कोटि का माना गया है| इसमें लड़की को सामाजिक बहिष्कार से बचाने एवं उसका सम्मान बनाए रखने के लिए विवाह की स्वीकृति प्रदान की जाती है|

हिंदू विवाह के निषेध या नियम (Prohibition of Hindu Marriage)

(1) बहिर्विवाह (Exogamy) – बहिर्विवाह का नियम यह निश्चित करता है कि कुछ नजदीकी संबंधियों या नातेदारों के बीच यौन संबंध नहीं होने चाहिए | अतः यह नियम उस भीतरी सीमा का निर्धारण करता है जिसके बाहर ही किसी को विवाह की अनुमति होती है| परंपरागत हिंदुओं में गोत्र, प्रवर तथा सपिंड विवाह का निषेध किया गया है|

(i) गोत्र बहिर्विवाह – हिंदुओं में अपने गोत्र में विवाह का निषेध किया जाता है| गोत्र का अर्थ उन व्यक्तियों के समूह से हैं जिनकी उत्पत्ति एक ही ऋषि पूर्वज से हुई है एक ही ऋषि पूर्वज से उत्पन्न होने के कारण लड़के लड़कियों को भाई-बहन समझा जाता है| अतः गोत्र से बाहर विवाह किया जाता है|

(ii) सप्रवर बहिर्विवाह – इसका सम्बन्ध कुछ विशेष प्रकार के अनुष्ठान में विश्वास से है| प्राचीन काल में हवन के दौरान जिन पूर्वजों या ऋषियों का नाम लेकर आह्वान किया जाता था उसे अपने प्रवर से संबंधित मान लिया जाता था| अतः अपने प्रवर से बाहर विवाह करना सप्रवर बहिर्विवाह है|

(iii) सपिण्ड बहिर्विवाह – सपिण्ड बहिर्विवाह मातृ एवं पितृ पक्ष की तरफ से कुछ पीढ़ियों तक में विवाह का प्रतिबंध लगाता है| वशिष्ठ ने माता की तरफ पाँच एवं पिता की तरफ सात पीढ़ियों तक के लोगों से विवाह पर प्रतिबंध लगाया है|

(2) अंतःविवाह (Endogamy) – हिंदुओं में जाति मुख्यत: अंतःविवाही समूह होता है| तात्पर्य है कि अपनी ही जाति या उप-जाति के भीतर ही विवाह किया जाता है| जाति से बाहर विवाह प्रतिबंधित होता है|

अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह (Hypergamy and Hypogamy) – अनुलोम विवाह को कुलीन विवाह भी कहते हैं| मनु स्मृति के अनुसार ब्राह्मण अपने से निम्न तीन वर्ण क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र कन्या से, क्षत्रिय अपने से निम्न दो वर्ण वैश्य एवं शूद्र कन्या से और वैश्य अपने वर्ण के अतिरिक्त शूद्र कन्या से भी विवाह कर सकता है|

प्रतिलोम विवाह – जब निम्न वर्ण के लड़के का विवाह उच्च वर्ण की लड़की के साथ संपन्न होता है, तब इसे प्रतिलोम विवाह कहते हैं| शास्त्रों में यह विवाह वर्जित है| ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान को चाण्डाल कहा गया है|

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हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार (Hindu Marriage as a Sacrament)

संस्कार का तात्पर्य व्यक्ति का शुद्धिकरण करना है| जो हिंदू दर्शन के अनुसार मनुष्य को सामाजिक जीवन के योग्य बनाने वाला गुण प्रदान करता है| व्यक्ति के जीवन को परिष्कृत करता है तथा सामाजिक अधिकारों एवं कर्तव्यों से परिचित कराता है|

पारम्परिक रूप से हिंदू विवाह एक संस्कार है, क्योंकि यह पति-पत्नी के स्वार्थों की पूर्ति का साधन नहीं है अपितु इनके द्वारा कुछ सामाजिक दायित्वों को पूरा किया जाता है, जिसमें धार्मिक कर्मकाण्ड से लेकर संतानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से मुक्त होने तक का कर्तव्य शामिल है| इस तरह हिंदू विवाह संस्कार के मानदण्डों को पूरा करता है|

के. एम. कपाड़िया (K. M. Kapadia) अपनी पुस्तक मैरेज एंड फैमिली इन इंडिया (Marriage and Family in India) में लिखते हैं कि हिंदू विवाह एक संस्कार है यह पवित्र समझा जाता है क्योंकि यह तभी पूर्ण होता है जबकि कृत्य वैदिक मंत्रों के साथ किया जाय|

निम्न विशेषताओं के आधार पर हिंदू विवाह को संस्कार कहा जा सकता है –

(1) विवाह का आधार धर्म (कर्तव्य)|

(2) विवाह सम्बन्धों का स्थायित्व|

(3) दो परिवारों की पारस्परिक सहमति|

(4) धार्मिक विधान तथा अनुष्ठान, जो निम्न हैं –
(i) वाग्यदान| (ii) कन्यादान| (iii) अग्नि स्थापना| (iv) पाणिग्रहण| (v) लाजा होम| (vi) अग्नि परिणयन| (vii) सप्तपदी|

(5) व्यक्ति के सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण|

(6) मोक्ष प्राप्ति का साधन|

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि हिंदू विवाह एक संस्कार है जो धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए स्त्री एवं पुरुष को समाज एवं परिवार में प्रस्थिति प्रदान करता है| सात जन्मों का बंधन माना जाता है| प्रतिबद्धता एवं स्थायित्व हिंदू विवाह की दो ऐसी विशेषताएँ हैं, जिसकी तरफ वे समाज भी आकर्षित हो रहे हैं जो भौतिकता से उत्पन्न संघर्षों का कुछ हद तक स्थायी समाधान चाहते हैं|

हिंदू विवाह में परिवर्तन – हिंदुओं में विवाह को एक महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य संस्था माना जाता है| लेकिन वर्तमान बदलती परिस्थितियों में इसमें परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं| पढ़े-लिखे व्यक्ति अब विवाह से जुड़ी पारम्परिक मान्यताओं का तार्किक विवेचन कर रहे हैं, जिससे मूल्यों में परिवर्तन हो रहा है| संतानोत्पत्ति का मूल्य बदल रहा है, उसकी जगह आत्मसंतुष्टि का मूल्य प्राथमिक वैवाहिक मूल्य के रूप में उभरकर सामने आ रहा है| इसे निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –

(1) विवाह की आयु में वृद्धि – प्रारंभ में बाल विवाह को रोकने के लिए 1929 में बाल विवाह निरोधक अधिनियम (Child Marriage Restraint Act) लागू किया गया| किंतु वर्तमान में संपन्न वर्गों में विवाह के लिए रोजगार की अनिवार्यता ने विवाह की उम्र को अनौपचारिक रूप से बढ़ा दिया है|

(2) विवाह के नियम में परिवर्तनहिंदू विवाह अधिनियम 1955 द्वारा अंत:विवाह (जाति के भीतर) तथा बहिर्विवाह (गोत्र,प्रवर के बाहर) के प्रतिबन्धों को समाप्त कर दिया है| अब कोई भी हिंदू गोत्र एवं प्रवर के भीतर तथा जाति के बाहर विवाह कर सकता है| सिर्फ सपिण्ड विवाह पर आंशिक प्रतिबंध लगाया गया है| प्रतिलोम विवाह के निषेध को भी इस अधिनियम ने समाप्त कर दिया है| अब एक लड़का या लड़की स्वयं के गोत्र में या दूसरी जाति में भी कानूनी रूप से वैध विवाह कर सकता/सकती है|

(3) संस्कार से संविदा – हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में की गयी तलाक की व्यवस्था ने विवाह को संस्कार (Sacrament) से संविदा (Contract) में परिवर्तित कर दिया| सात जन्मों तक माने जाने वाले रिश्ते को न्यायालय द्वारा तलाक के माध्यम से अलग होने की व्यवस्था कर दी गयी है|

(4) कर्मकाण्ड में कमी – परम्परागत रूप से विवाह की तारीख के कुछ दिन पहले से लेकर कुछ दिन बाद तक अनेक रस्मों एवं कर्मकाण्डों को निभाया जाता था, किंतु भौतिकतावादी एवं भाग-दौड़ के वर्तमान जीवन में यह एक दिन के रस्मों तक सीमित हो गया है|

(5) परिवार द्वारा तय किये गये विवाह के स्थान पर प्रेम विवाह का भी प्रचलन देखने को मिलता है|

(6) समूह में विवाह का आयोजन किया जाने लगा है|

(7) दहेज का अधिकाधिक प्रचलन हो गया है|

(8) तलाक एवं विधवा पुनर्विवाह को स्वीकृति प्रदान कर दी गयी है|

मिताक्षरा एवं दायभाग (Mitakshara and Dayabhag) – यह दोनों संप्रदाय हिंदू संयुक्त परिवार के उत्तराधिकार के नियम से संबंधित हैं| दायभाग का नियम मुख्यतः बंगाल एवं असम में हैं, जबकि भारत के अन्य भागों में मिताक्षरा नियमों का पालन किया जाता है|

मिताक्षरा – यह जन्म से उत्तराधिकार (Inheritance by Birth) के नियम लिए प्रसिद्ध है| इसके रचयिता विज्ञानेश्वर हैं| इस ग्रंथ के अनुसार संयुक्त परिवार में संपत्ति के सह-मालिक (Co-ownership/Copercenary) में केवल पुरुष सदस्य ही शामिल हैं| जिसमें पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र शामिल हैं एवं पुत्र को जन्म से ही पैतृक संपत्ति में हकदार माना गया है|

दायभाग – दायभाग के रचयिता जिमूतवाहन हैं| दायभाग के नियमानुसार पुत्र जन्म से संपत्ति का हकदार नहीं है, बल्कि पिता की मृत्यु के बाद ही वह संपत्ति में अधिकार प्राप्त कर सकता है|

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 (Hindu Succession Act) मिताक्षरा कानून पर आधारित था| जिसमें बेटे को जन्म से ही पिता की संपत्ति में अधिकार था जबकि बेटी को नहीं| इस कानून में 2005 में हुए संसाेधनों के बाद अब बेटे एवं बेटी दोनों को जन्म से ही पिता की संपत्ति में समान अधिकार दिया गया है|

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