आश्रम व्यवस्था (Ashram System): 4 types


Ashram system, शाब्दिक रूप से आश्रम शब्द श्रम धातु से बना है जिसका तात्पर्य परिश्रम करना है| समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो मार्क्स ने भी कहा है मानव ही श्रम है एवं श्रम ही मानव है|सर्वप्रथम जाबालि उपनिषद में चारों आश्रम की चर्चा की गयी है| आश्रम व्यवस्था में मानव जीवन साध्य होता है, एवं श्रम इसका साधन| इन्हीं आश्रमों के माध्यम से व्यक्ति अपने चारों पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का निष्पादन करता है| आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत हम निम्न चार आश्रम की चर्चा करेंगे|

Ashram System के प्रकार

  1. ब्रह्मचर्य आश्रम
  2. गृहस्थ आश्रम
  3. वानप्रस्थ आश्रम
  4. संन्यास आश्रम
महाभारत में कहा गया है कि जीवन के चार आश्रम व्यक्तित्व के विकास की चार सीढ़ियाँ हैं, जिस पर क्रम से चढ़ते हुए व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति करता है|

हिंदू शास्त्रों में मनुष्य के जीवन को 100 वर्ष मानकर चारों आश्रमों के लिए एक समान अवधि निर्धारित की गयी है| ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि 25 वर्ष तक है| 26 से 50 वर्ष तक गृहस्थ आश्रम की अवधि है| वानप्रस्थ आश्रम 51 से 75 वर्ष तक तथा सन्यास आश्रम 76 से 100 वर्ष की आयु तक है| शास्त्रों में इन्हीं आश्रमों के माध्यम से मनुष्य के जीवन को व्यवस्थित एवं वर्गीकृत किया गया है|

(1) ब्रह्मचर्य आश्रम

ब्रह्मचर्य आश्रम का उद्देश्य विद्यार्थी के रूप में जीवन व्यतीत करने एवं गुरू से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने से है, जिसमें धर्म जैसे पुरुषार्थ का पालन किया जाता है| इसमें बच्चा शारीरिक और मानसिक विकास करता है| इस आश्रम का आरम्भ उपनयन संस्कार (जनेऊ धारण) से शुरु हो जाता है| इस आश्रम में इंद्रियों के नियंत्रण पर अत्यधिक बल दिया जाता है|

महत्त्व –

(1) जीवन में ज्ञान अर्जन के लिए महत्वपूर्ण आश्रम है|

(2) मानसिक एवं शारीरिक विकास होता है|

(3) इस आश्रम में मनुष्य जीवन के मूल्यों एवं प्रतिमानों को सीखता है|

(4) यह आश्रम इंद्रियों के नियंत्रण एवं संयम में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है|

(5) इस आश्रम द्वारा मनुष्य के जीवन की दिशा एवं दशा निर्धारित होती है|

(2) गृहस्थ आश्रम

विवाह संस्कार के द्वारा व्यक्ति इस आश्रम में प्रवेश करता है| हिंदू शास्त्र के अनुसार विवाह के तीन उद्देश्य धर्म, प्रजा एवं रति है| इस आश्रम में मनुष्य पाँच यज्ञ यथा – ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, भूत यज्ञ, अतिथि यज्ञ का संचालन करता है, तथा संतानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से मुक्त होकर मनुष्य की निरंतरता सुनिश्चित करता है| गृहस्थ आश्रम में ही जीवन की सफलता प्राप्त की जा सकती है| इस आश्रम में सांसारिक वस्तु के उपभोग के बाद उत्पन्न हुई मोक्ष की इच्छा में कोई व्यवधान नहीं रहता है| इस आश्रम में धर्म अर्थ एवं काम तीनों पुरूषार्थों का पालन किया जाता है|

महत्व –

(1) यह चारो आश्रमों में समन्वय स्थापित करता है|

(2) इस आश्रम में तीन पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम का पालन किया जाता है|

(3) यह आश्रम सांस्कृतिक परम्पराओं को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने में महत्वपूर्ण योगदान देता है|

(4) यह आश्रम व्यक्तिवादिता पर अंकुश तथा पारिवारिक एवं सामूहिक जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करता है|

(5) सामाजिक जीवन में सहयोगी बनने का आदर्श प्रस्तुत करता है|

(6) गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति ऋणों से मुक्त होता है| यज्ञ व हवन द्वारा देव ऋण,वेदों एवं शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन द्वारा ऋषि ऋण तथा संतानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से उऋण होता है|

(3) वानप्रस्थ आश्रम

वानप्रस्थ का तात्पर्य वन की ओर प्रस्थान करना है| इस आश्रम में व्यक्ति अपने सांसारिक सुख को त्याग कर वन में कहीं कुटिया बनाकर पवित्र एवं सादा जीवन व्यतीत करता है| इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है, तथा बिना किसी भेदभाव के लोगों के उपकार के लिए कार्य करता है| अपने अनुभव द्वारा प्राप्त ज्ञान एवं शिक्षा का प्रसार करता है|संयमित जीवन व्यतीत करता है यह आश्रम गृहस्थ एवं सन्यास आश्रम के मध्य में स्थिति को व्यक्त करता है| कुछ शास्त्रकार मानते हैं कि व्यक्ति सांसारिक सुख को त्याग कर जनकल्याण का कार्य करता है और संयमित जीवन व्यतीत करते हुए धीरे-धीरे सन्यास आश्रम में जाने की तैयारी करता है|

महत्व –

(1) व्यक्ति जो भी ज्ञान अपने गुरू या अनुभव द्वारा संग्रहित किया रहता है| उसे ब्रह्मचारियों एवं अन्य लोगों में प्रचार प्रसार करता है|

(2) समाज की संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी मैं हस्तांतरण के लिये यह आश्रम बहुत ही महत्वपूर्ण है|

(3) यह आश्रम समाज के लोगो की उन्नति एवं कल्याण के लिए अत्यंत आवश्यक है|

(4) इस आश्रम में व्यक्ति सांसारिक चिंताओं से मुक्त होकर कार्य करता है|

(4) संन्यास आश्रम

यह हिंदू आश्रम व्यवस्था अंतिम आश्रम है| सांसारिक जीवन त्यागकर ही एक व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है| इस आश्रम का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है| इस आश्रम में संन्यासी का किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थान से कोई लगाव नहीं रहता है| वह घृणा, मोह, सुख-दुख आदि आकांक्षाओं एवं कामनाओं से मुक्त रहता है तथा भिक्षा माँगकर उतना ही आहार ग्रहण करता है जितना उसको जीवित रहने के लिए आवश्यक होता है| इस आश्रम में धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ का पालन किया जाता है| व्यक्ति त्याग, चिंतन, मनन द्वारा मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करता है|

Ashram System का महत्त्व –

(1) यह आश्रम समाज में मोह, लोभ, घृणा, द्वेष आदि त्यागने की प्रेरणा देता है|

(2) यह आश्रम समाज में भौतिक सुख की अत्यधिक महत्वाकांक्षा वाले व्यक्ति को अंतिम समय के त्यागपूर्ण जीवन की याद दिलाता है|

(3) यह आश्रम धर्म पालन एवं चिंतन की प्रेरणा देता है|

(4) यह लोगों में भौतिकता के मोह को दूर कर त्यागपूर्ण जीवन जीने का आदर्श प्रस्तुत करता है|

नोट - शास्त्रों के अनुसार आश्रम व्यवस्था केवल द्विजों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य पर लागू होती है|

Objective Type Questions


3 thoughts on “आश्रम व्यवस्था (Ashram System): 4 types”

Leave a Comment

error: